क्या होती है सच्ची भक्ति?

ये कहानी एक ऐसे व्यक्ति (भद्रशेष) की है जो आर्थिक रूप से बहुत निर्धन था परन्तु भगवान् शिव शंकर का परम भक्त था।  उसकी भक्ति के किस्से नगर-नगर एवं राज्य भर में प्रचलित थे।  लोगों का तो यहाँ तक मानना था कि उसके पास कोई चमत्कारी शक्ति भी है जिससे वो असाध्य से असाध्य रोग को पल भर में ठीक कर सकता है।  परन्तु वह इतना साधारण था कि बच्चे तक भी उसके साथ मित्रता कर लेते थे।  और वाणी का इतना मधुर कि हर कोई उससे बात करना चाहता था। 


वह रोज नित्य भोर में जग कर , नदी में स्नानादि कर भगवान् भोलेनाथ कि पूजा अर्चना किया करता था और यह उसका रोज का नियम था।  धूप हो छाँव,या फिर तेज घनघोर बारिश , सुबह-सुबह उठकर नित्य कर्मों से निवृत होकर वह भगवान् भोलेनाथ की पूजा एवं सेवा किया करता था।  और हमेशा ऐसी चाह रखता था कि एक दिन भगवान् भोलेनाथ उसे दर्शन अवश्य देंगे। बस इसी इच्छा से वह रोज मंदिर जाता और पूजा पाठ किया करता था।

उसकी इस भक्ति के किस्से उस नगर के राजा भानुशाह के कानो तक भी पहुंचे ।  उसने सन्देश भिजवाया की ऐसे ब्यक्ति को हम भी देखना चाहेंगे। राजा के दूत ,राजा का सन्देश लेकर भद्रशेष के घर पहुचें और राजा का सन्देश सुनाया।  भद्रशेष बोला- "मैं ठहरा एक बहुत ही साधारण व्यक्ति भला मेरे दर्शन पाकर राजा को क्या मिलेगा?" दूत बोला -"वो हमें नहीं पता" आपको राजा के दरबार में उपस्थित होना होगा, और बदले में तुझे बहुत सारा पुरूस्कार व सोना चांदी मिलेगा"।  भद्रशेष बोला - "क्या मुझे कुछ अन्न या भोजन मिलेगा?" क्योंकि मेरे घर पर दो दिन से अन्न का एक भी दाना प्राप्त नहीं हुआ?

दूत बोला - "भोजन के बारे में मुझे कुछ नहीं पता" वो राजा ही बता सकतें हैं।  "तो जाओ पहले अपने राजा को बोलो कि यदि वह मुझे पहले भोजन दे सकतें हैं तो मैं अवश्य राज सभा में उपस्थित हो जाऊँगा।"  भद्रशेष विनम्रता से बोला।  दूत ने क्रोधित होकर कहा " हे भद्रशेष! तुम राजा की आज्ञा की अवहेलना कर रहे हो" इसके लिए तुम्हे दंड या मृत्युदंड भी मिल सकता है"।


भद्रशेष बोला - हे दूत ! दंड या मृत्युदंड से तो मैं बाद में मरूंगा परन्तु यदि मुझे आज सांयकाल तक अन्न न मिला तो मैं वैसे ही मृत्यु को प्राप्त हो जाऊँगा।" अतः तुम जाओ और राजा को मेरी व्यथा बता देना।  सुना  है राजा बड़े दयालु हैं वे अवश्य मेरी सहायता करेंगे।  दूत खाली हाथ लौटकर महल में वापस आ गया और पूरा वृत्तांत राजा को सुनाया। 

राजा यह सुनकर बहुत क्रोधित हुआ और बोला -"उस धृष्ट व्यक्ति का इतना साहस"? कि मेरी आज्ञा की अवहेलना करे ?" हम निश्चित ही उसे मृत्युदंड देंगे"।  सिपाहियों ! हमें उस धृष्ट व्यक्ति के पास ले चलो" हम स्वयं अपने हाथों से उसे मृत्युदंड देंगे" राज-सभा में उपस्थित ब्राह्मण एवं गुरुजनो ने राजा को समझाया - "हे राजन ! एक बहुत से साधारण एवं निर्धन व्यक्ति के पास जाकर उससे बहस कर एवं उसे मृत्युदंड देना एक परम प्रभावशाली राजा को शोभा नहीं देता"

यह काम तो आपका कोई सैनिक भी कर सकता है " यह कृत्य करके आप अपनी कीर्ति को कम न होने दें " राजा की समझ में यह बात आयी और बोला -"तो हे ऋषिश्रेष्ठ आप ही कोई मार्ग सुझाएं "।  राजऋषि ने सुझाया -"हे राजन ! आप मुझे एक दिन का समय दें , हम आपको कोई न कोई मार्ग अवश्य बताएँगे"।  "उचित है ऋषिश्रेष्ठ" यह कहकर राजा शांत हुआ। 

अगले दिन पुनः राज सभा आयोजित की गयी।  सभी मंत्रीगण ,राजऋषि एवं अन्य सभासद सभा में उपस्थित हो गए।  कुछ समय पश्चात् राजा भानुशाह भी सभा में उपस्थित हो गया।  सिंहासन पर बैठ कर बोला -"हे ऋषिवर ! आप मुझे उस धृष्ठ व्यक्ति को दंड देने का कोई उपाय बताने वाले थे" ऋषि उठकर बोले - हे राजन ! जैसा कि आप जानते ही हैं , मैं  भगवान शिव का पुजारी हूँ अतः भगवान् शिव ने ही मुझे आपके लिए मार्ग सुझाया है "।  राजा बोला - हाँ तो ऋषिवर बताइये उस उदंड व्यक्ति को दंड देने के लिए भगवान शिव ने मुझे क्या सुझाया है?

ऋषि बोले - राजन ! भगवान् शिव ने सुझाया है कि वह व्यक्ति भी मेरा परम भक्त है।  अतः उसे मृत्युदंड देकर , आप स्वयं शिव जी के अपराधी बन जाते हो अतः आपको पहले उस अपराध के पाप का हल ढूँढना चाहिए तब कहीं जाकर उस व्यक्ति भद्रशेष को आप मृत्युदंड दे सकते हो। राजा तुरंत सिंहासन से उठा और बोला - "तो ऋषिवर उस अपराध के पाप का हल क्या है" ? ऋषि बोले - "उसके लिए पहले आपको शिव मंदिर में 2 बोरी गेहूं ,2 बोरी चावल, सवा मन गुड़ एवं कुछ अन्य अनाज दान करने होंगे"

राजा बोला - "बस इतनी सी बात?" "हम आज ही सैनिको को बोलकर ये सब दान करवा देते है"।  ऋषि बोले - "नहीं राजन यह सब आपको स्वयं जाकर अपने हाथों से दान करना होगा"।  राजा बोला - "यह भी ठीक है " मैं कल ही यह दान करने हेतु शिव मंदिर के लिए प्रस्थान करूँगा"। 

अगले दिन राजा सलाहानुसार उचित अन्न एवं भोजन सामग्री घोड़ा गाड़ी में डलवाकर ऋषि द्वारा सुझाये गए मंदिर की और चल पड़ा।  काफी लम्बे सफर के बाद वह एक निर्जन वन में पहुंचा।  जहां इंसान तो क्या ,पशु-पक्षी कुछ भी नजर नहीं आ रहे थे।  ये देख राजा को बड़ी हैरानी हुई।  उसने सैनिको को पता लगाने के लिए भेजा कि देखो कोई शायद दिख जाय। 


परन्तु सैनिक भी कुछ देर बाद वापस आकर बोले - "महाराज इस वियावान वन में कोई भी प्राणी नहीं है।  हमें बिना किसी कि राह देखे आगे बढ़ते रहना होगा।  राजा भी अब सोचने लगा कि ऋषि ने ये कैसा सुझाव दे दिया पर तभी उसे याद आया कि ये सुझाव स्वयं  महादेव जी का है ,अतः बिना देरी किये वह आगे बढ़ता गया।  

बहुत देर कि यात्रा के बाद राजा बताये गए मंदिर के समीप पंहुचा।  वह मंदिर बहुत ही पुराना व खंडहरनुमा था।  राजा यह सोच कर बड़ा हैरान और परेशान हुए जा रहा था कि महादेव जी ने अन्न समर्पित करने के लिए यही मंदिर क्यों चुना? परन्तु पुनः यह सोचकर कि वे तो भोलेनाथ हैं ,कुछ भी, कहीं भी और कैसी भी दशा में कोई भी सामग्री स्वीकार कर लेते हैं अतः वह प्रसन्न मुद्रा में मंदिर के अंदर प्रवेश कर गया।  सभी सैनिकों को बाहर ही प्रतीक्षा करने को बोला गया।  

अंदर जाकर देखा तो वहाँ एक बहुत पुराना सा शिवलिंग बड़ी जीर्ण-क्षीर्ण अवस्था में पड़ा है और शायद ही किसी ने उसकी वर्षों से कोई पूजा अर्चना या जलाभिषेक किया हो।  राजा ने उस शिवलिंग कि बड़े अच्छे तरीके से सफाई की, वहाँ फूल मालाएं अर्पित की और बहुत खुशबूदार धुप एवं दीप  प्रज्वलित किया। और शिवलिंग का जलाभिषेक किया । मन ही मन महादेव जी से प्रार्थना करने लगा कि प्रभु मैं जो ये अन्न सामग्री लाया हूँ उसे स्वीकार करें। 


उसने वो अन्न सामग्री एक-एक कर शिवलिंग के समीप चबूतरे पर रखी।  परन्तु जैसे ही वह एक बोरी अनाज की वहाँ पर रखता वह बोरी अपने-आप ही नीचे लुढ़क जाती।  पहले तो राजा को लगा शायद ये बोरी या अन्य सामान ऐसे ही नीचे लुढ़क रहा है परन्तु हर बार रखने पर कोई भी सामान वहाँ पर रुक ही नहीं रहा था। 

मानो शिवजी स्वयं नहीं चाह रहे थे कि वो सामग्री वहाँ पर उन्हें अर्पित की जाय। वे बार-बार उस सामग्री का तिरस्कार कर रहे थे।  राजा अब बहुत परेशान हो गया। राजा काफी देर तक भगवान् भोलेनाथ से प्रार्थना व याचना करता रहा कि हे महादेव ! ये अन्न ग्रहण तो कर लीजिये।  क्योंकि आपकी ही इच्छानुसार मैं ये भोजन सामग्री आपको चढाने आया हूँ। 

तभी बहुत तेज रौशनी शिवलिंग से फूटती है और उसके प्रकाश से सारा मंदिर जगमान हो जाता है मानो उस मंदिर में अरबों दीयों कि रौशनी किसी ने जला दी हो।  पहले तो राजा की आँखें चुंधियाँ गयीं परन्तु कुछ देर बाद अपने आप को संभालने के बाद राजा ने सामने जो देखा वह हैरान और परेशान हो गया और साथ ही साथ उसकी आखों में अश्रुधारा बह चली।

उसके सामने साक्षात "भोलेनाथ" प्रकट हुए थे।  माथे पर तेज,हाथ में त्रिशूल, गले में भुजंग एवं जटाओं में चन्द्रमा लिए हुए महादेव साक्षात उसके सामने प्रकट हुए थे।  राजा भानुशाह को विश्वाश ही नहीं  हो रहा था कि महादेव जी ने उसे दर्शन दिए हैं।  "प्रणाम भोलेनाथ ! आपके चरणों में मेरा दंडवत प्रणाम ! यह कहकर राजा भोलेनाथ जी के चरणों में गिर गया और महादेव जी का गुणगान करने लगा। 


उठो वत्स ! उठो ! महादेव जी बोले।  राजा अभी भी आखों में अश्रुधारा लिए महादेव जी के चरणों में लोटा हुआ था।  बहुत देर अपने आप को सँभालने के बाद वह उठा और महादेव जी कि तरफ अपलक दृष्टि से देखता रहा और बोला - महादेव आपके दर्शन पाकर आज तो मैं धन्य हो गया हूँ।  मेरी अब कोई इच्छा नहीं रह गयी है प्रभु। मैं आपके चरणों में विलीन हो जाना चाहता हु प्रभु !

नहीं राजन ! ऐसी बात नहीं है।  मैं तो अपने हर भक्त के लिए एक जैसा हूँ।  जो भक्त सच्ची श्रद्धा एवं भक्ति से मुझे याद करता है तो मैं अवश्य चला आता हूँ। मैं उन्हें कभी निराश नहीं करता।  राजा बोला -"तो प्रभु यदि आप मुझ पर प्रसन्न होकर आये हैं तो मेरा यह अन्न एवं अन्य सामग्री आप स्वीकार क्यों नहीं करते हो प्रभु ? मैं समझ गया था आप इस सामग्री को स्वीकार नहीं कर रहे हैं प्रभु !

भगवान भोलेनाथ बोले - मैंने माँगा तो था तुमसे राजन ! परन्तु तुमने दिया ही नहीं। मेरे बार-बार आग्रह करने पर भी तुमने मुझे भोजन दिया ही नहीं।  जब मुझे इस भोजन की परम आवश्यकता थी उस समय तुमने मुझे भोजन देने से मना कर दिया।  अब मैं इस भोजन का क्या करूँगा राजन ?


राजा असमंजस में पड़ गया और सोचने लगा कि "भगवान ने मुझ से भोजन का आग्रह कब किया "?  भगवान् भोलेनाथ मुझ से आग्रह करें और मैं मना कर दूँ  ऐसा हो ही नहीं सकता।  वह महादेव जी से बोला " परन्तु प्रभु ! आपने मुझ से भोजन का आग्रह कब किया "? मुझे तो याद ही नहीं है"

भगवान् शंकर बोले -"याद करो राजन ! जब तुमने अपने सैनिक को भेजा था "भद्रशेष" को लिवाने के लिए, क्योंकि तुम उसकी भक्ति को अपने सामने देखना चाहते थे और उसने तुमसे आने के बदले में भोजन की मांग की थी परन्तु तुमने भोजन देने  के बजाय अहंकारवश उसे मृत्युदंड देने का आदेश दिया था"।

राजा बोला -परन्तु प्रभु वो तो एक तुच्छ एवं निर्धन व्यक्ति है। भगवान् बोले - बस यही तो गलती की है  तुमने राजन।  दूसरे प्राणी को अपने से तुच्छ समझना एवं अहंकावश अपने आप को उससे उच्च समझना यही भावना और अन्य अवगुण लिए हुए  प्राणियों की मैं भक्ति कभी नहीं स्वीकारता।  हर एक प्राणी के भीतर मैं बसता हूँ और मेरे अंदर ये सम्पूर्ण संसार। उस वक़्त यदि तुम उसे भूखे "भद्रशेष" को भोजन करवा देते तो मैं तृप्त हो जाता । इस समय मुझे ये सामग्री चढ़ानी की आवश्यकता नहीं होती राजन। 

और मैं उसी भद्रशेष की परम भक्ति के कारण तुम्हे यहां दर्शन देने हेतु आया हूँ क्योंकि तुमने उसका ह्रदय पीड़ा से भर दिया था और मैं अपने भक्तों की पीड़ा देख नहीं सकता यद्यपि भद्रशेष के घर उसकी भक्ति के प्रताप से अन्न का भण्डार हो चुका है और उसे अब भूखा नहीं रहना पड़ेगा। परन्तु  तुम्हारी आखों से अज्ञानता का आवरण हटाने मुझे आना ही पड़ा । 


राजा भानुशाह समझ गया था कि उसने बहुत बड़ी गलती कर डाली है।  उसे मन ही मन बहुत पछतावा होने लगा और महादेव से क्षमा याचना करने लगा। "प्रभु मुझ अज्ञानी को क्षमा कर दो"। " मुझ से अज्ञानतावश बहुत बड़ी भूल हो गयी है। "मुझे क्षमा कर दो प्रभु !

क्षमा मुझ से नहीं राजन भद्रशेष से मांगो। महादेव जी बोले। यदि तुम उसका ह्रदय पुनः  प्रेम और तुम्हारे लिए आदर एवं सम्मान से भर देते हो तो मेरे लिए यही सबसे बड़ा अन्न वो भोजन होगा। और यही तुम्हारी मेरे प्रति सच्ची भक्ति होगी राजन। और इतना कह कर भगवान् भोलेनाथ अंतर्ध्यान हो गए।  राजा अपनी गलती पर बहुत शर्मिन्दा था।  वह तुरंत अपने दरबार लौटा और दूसरे दिन पैदल ही भद्रशेष के घर की तरफ रवाना हो गया। 

राजा को अपने घर के समीप देख भद्रशेष घबरा गया और सोचने लगा कि आज राजा उसे मृत्युदंड देने आया है।  राजा ने कहा - "नहीं भद्रशेष ! जैसा तुम सोच रहे हो वैसा नहीं है।  मैं अपने किये हुए पर बहुत शर्मिंदा हूँ।  मुझे तुम्हे उस समय अनाज व भोजन देना चाहिए था पर अहंकारवश एवं अज्ञानतावश मैं एक बहुत बड़ी गलती कर बैठा।  मुझे क्षमा कर दो भद्रशेष। 

एक राजा को अपने सामने क्षमा याचना करता देख भद्रशेष का मन पसीज गया और उसकी आखों में अश्रुधारा बह आयी।  वह बोला - नहीं महाराज ! एक राजा प्रजा का रक्षक होता है और एक रक्षक इस तरह से क्षमा याचना करे अच्छा नहीं लगता।  यदि राजा की आज्ञा हो तो मैं क्या अपने राजा को अपने ह्रदय से लगा सकता हूँ ?

राजा ने जैसे ही यह सुना वह बड़े जोर से रोने लगा और बोला - "भद्रशेष तुम सचमुच में विशाल ह्रदय वाले हो।  मैं आज समझ गया कि सच में ऊपर बैठे महादेव जी अपने भक्तों से क्या चाहते हैं और ऐसा कहकर राजा ने भद्रशेष को प्रेमपूर्वक अपने गले से लगाया। 

सभी प्रजा में उपस्थित लोग भी नम आखों से इस मिलन को देख रहे थे।  और राजा , भद्रशेष को गले लगाते समय ऐसा महसूस कर रहा था कि वह जैसे भद्रशेष के गले नहीं अपितु भगवान् भोले -शंकर के ह्रदय से लग रहा हो।  वह एकदम से चीख पड़ा " हर-हर महादेव ! हर हर महादेव !


कहानी का सार -
इस कहानी का सार यह है कि इस जगत मैं भगवान् के द्वारा बनाये गए सभी प्राणी एक जैसे हैं।  परन्तु मानव अहंकारवश अपने से छोटे लोगो से भेदभाव का व्यवहार करने लगता है।  उदाहरण - किसी बड़े से ऑफिस में एक अफसर पद पर कार्यरत आदमी उसी ऑफिस के चपरासी से कैसा व्यवहार करता है यह  शायद किसी को बताने की जरुरत नहीं है।  कहीं न कहीं वह उस चपरासी को उसकी "औकात" बताने वाली हरकतें अवश्य करता है और भगवान् भोलेनाथ को यह भी पसंद नहीं है। 

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मेरी कहानियां

मैं एक बहुत ही साधारण किस्म का लेखक हूँ जो अपनी अंतरात्मा से निकली हुई आवाज़ को शब्दों के माध्यम से आप तक पहुँचाता हूँ

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