बात 1995 और 96 की है, मैं कक्षा 9 में प्रवेश ले चुका था और पूरे स्कूल में सभी कक्षाओं में प्रवेश की प्रक्रिया चल रही थी. हमारी कक्षा में भी प्रवेश प्रक्रिया चल रही थी और हम सभी छात्र अपने-अपने नाम की घोषणा होने की प्रतीक्षा में बैठे हुए थे. तभी मेरे समीप एक छात्र आया जो कि निश्चित ही रूप से किसी दूसरे विद्यालय से हमारे विद्यालय में कक्षा 9 में प्रवेश लेने के लिए आया था.
वह मेरे समीप बैठा और मुझसे पूछने लगा कि भाई आपका नाम क्या है? मैंने बड़ी सादगी से उत्तर दिया कि मेरा नाम लक्ष्मण सिंह नेगी है तो उसने फिर पूछा -क्या आप किसी बाहर की स्कूल से यहां आए हो या इसी स्कूल से अपने कक्षा 8 की परीक्षा पास किया और अब जाकर कक्षा 9 में प्रवेश ले रहे हो ? मैंने कहा -नहीं भाई मैं तो इसी स्कूल में पढ़ा हूं कक्षा 6 से लेकर के 8 तक मैं यही पढ़ा हूँ और अब मैं नवीं कक्षा में यहीं प्रवेश ले रहा हूँ। हम सब विज्ञान संकाय के छात्र थे स्वाभाविक सी बात थी कि वह लड़का भी विज्ञान संकाय में प्रवेश लेना चाहता था.
मैंने भी उत्सुकता वश उसका नाम पूछा और उसने अपना नाम मुझे उमेश चंद्र जोशी बताया. वह कुमाऊँ मंडल के अल्मोड़ा जिले के घेटी गांव का रहने वाला था उसके पिताजी इस शहर में वन विभाग में ट्रांसफर होकर पोस्टेड थे उसकी वजह से उमेश को इस स्कूल में यानी कि हमारे स्कूल में एडमिशन लेना था फिर धीरे-धीरे हम लोग हमेशा की तरह कक्षाओं में जाने लगे पढ़ाई करने लगे और एक साथ खेलकूद भी करने लगे।
स्कूल में इंटरवल के वक्त हम दोनों स्कूल से दूर खेतों में क्रिकेट मैच खेला करते थे और धीरे-धीरे हमारी दोस्ती काफी पक्की हो गई थी और इतनी पक्की हो गई थी कि हम दोनों ने आपस में सौगंध खाई कि हम इस दोस्ती को कभी भी नहीं टूटने देंगे.
हम दोनों अब बेस्ट फ्रेंड (परम मित्र) बन चुके थे. दोनों का साथ में खाना शेयर करना, आपस में घूमने, दोनों का आपस में एक दूसरे को अपनी बातें बताना अपनी बातें शेयर करना यह अब हमारी दिनचर्या में शामिल हो चुका था. धीरे-धीरे हमारी कक्षा 9 की वार्षिक परीक्षाएं शुरू हुई और हम लोग कक्षा 9 को उत्तीर्ण करके कक्षा 10 में पहुँच गए।
हमारी दोस्ती दिन-प्रतिदिन बढ़ती चली गई हम लोग इतने घनिष्ठ मित्र बन गए थे कि अब हमारी दोस्ती को कोई भी नहीं तोड़ सकता था. हम दोनों ने आपस में सोच लिया था कि चाहे कुछ भी हो जाए हमारी यह दोस्ती नहीं टूटेगी। शाम के समय हम दोनों स्कूल से आने के बाद अपना सारा होमवर्क वगैरह पूर्ण करने के बाद वन विभाग के पार्क में ही जूडो कराटे की प्रेक्टिस किया करते थे. उमेश की पिता वन विभाग में कार्यरत थे।
दोस्ती की भावना
हम दोनों में, मैं खेल के प्रति के प्रति काफी गंभीर था और खेल में क्रिकेट हो गया फुटबॉल हो, या जूडो कराटे, मैं इन सभी खेलों में अपनी रुचि दिखाता था तो स्वाभाविक सी बात है कि उमेश की भी इन खेलों में रुचि जाग गई थी। हम दोनों आये दिन खेलों का अभ्यास किया करते थे। हम दोनों अब बहुत अच्छे दोस्त हो चले थे।
हम दोनों में, मैं खेल के प्रति के प्रति काफी गंभीर था और खेल में क्रिकेट हो गया फुटबॉल हो, या जूडो कराटे, मैं इन सभी खेलों में अपनी रुचि दिखाता था तो स्वाभाविक सी बात है कि उमेश की भी इन खेलों में रुचि जाग गई थी। हम दोनों आये दिन खेलों का अभ्यास किया करते थे। हम दोनों अब बहुत अच्छे दोस्त हो चले थे।
इसी तरह दिन बीतते गए और दसवीं कक्षा के परिणाम भी सामने आए, दुर्भाग्य बस उमेश उस वर्ष दसवीं कक्षा को उत्तीर्ण नहीं कर पाया और मैं अगली कक्षा 11वीं में पहुंच गया लेकिन बावजूद इसके भी, हम दोनों के बीच की दोस्ती कम नहीं हुई क्योंकि अपना स्कूल एक ही था तो रोज सुबह एक साथ स्कूल जाना और एक साथ स्कूल से वापस आना, यह हमारी दिनचर्या बन चुकी थी।
हां इतना जरूर हुआ था कि अब हम दोनों पढ़ाई एक साथ नहीं कर पाते थे क्योंकि मैं 11वीं कक्षा की पढ़ाई करता था और वह दसवीं कक्षा की , तो स्वाभाविक सी बात है हम दोनों की पढ़ाई एक साथ हम लोग नहीं कर सकते थे। पर खेल कूद हमारा अभी भी वैसा ही चल रहा था जैसा की 1 साल पहले.
11वीं परीक्षा उत्तीर्ण करने के पश्चात मेरे पिताजी का उस शहर से ट्रांसफर किसी अन्य शहर में हो गया था जिसके परिणाम स्वरुप मुझे भी उस नए शहर में जाना था। और 12 वी की कक्षा में प्रवेश लेना था। यहां पर हमारी दोस्ती में एक विच्छेद आ गया था क्योंकि उस वक्त मोबाइल फोन भी नहीं हुआ करते थे। चिठ्ठियों का जमाना था। और अंततः बिना उसको गले मिले मैं वहाँ से अपने पिताजी के साथ अन्य शहर में चला गया और 12वीं कक्षा में एडिशनल ले लिया और इस तरह से हम दोनों की दोस्ती वहां से विच्छेद हो गयी।
चिठ्ठियों वाले सन्देश
अब क्योंकि मोबाइल फोन तो था नहीं जिससे कि हम लोग आपस में बातें करें, चिट्ठी वगैरह होती थी लेकिन चिट्ठी तक लिखने का इतना हम लोगों के पास समय नहीं होता था और नहीं हम लोगों के पास चिट्ठी के लिए अंतर्देशीय कार्ड इतनी आसानी से मिल पाता था।
अब क्योंकि मोबाइल फोन तो था नहीं जिससे कि हम लोग आपस में बातें करें, चिट्ठी वगैरह होती थी लेकिन चिट्ठी तक लिखने का इतना हम लोगों के पास समय नहीं होता था और नहीं हम लोगों के पास चिट्ठी के लिए अंतर्देशीय कार्ड इतनी आसानी से मिल पाता था।
क्योंकि अंतर्देशीय कार्ड खरीदने के लिए भी पोस्ट ऑफिस में जाना होता था और पोस्ट ऑफिस हमारे घर से बहुत दूर था जो कि संभव नहीं था कि हम लोग चिट्ठी खरीद के एक दूसरे का हाल चाल जान सकें। हालांकि मैंने 12वीं कक्षा के दौरान और उसने ग्यारहवीं कक्षा के दौरान एक दो बार चिट्ठियां एक दूसरे को लिखी।
और इन्ही चिट्ठियों ने हमें हमारी महिला मित्रों से प्रेम का इजहार करवाया (हा हा हा हा)। लड़कपन का एक ऐसा ठहराव जहां से हर कोई गुजरता है ,बड़े बुजुर्ग इसे समय का बंधन कहते हैं जो इस बंधन से निकल गया वो ता-उम्र आगे बढ़ता है और जो न निकल पाया वो बेचारा देवदास बन जाता है। पर हम दोनों को देवदास नहीं बनना था। ।
परन्तु चिट्ठियों का यह आदान -प्रदान कुछ समय तक ही चला उसके बाद यह क्रम भी टूट गया, कारण क्या था ? आज तक पता नहीं चला। फिर उसके बाद हम दोनों की आपस में कभी भी बात नहीं हो पाई.
मैं 12वीं के बाद B Sc. फर्स्ट ईयर, सेकंड ईयर, थर्ड ईयर, और फिर M.Sc. फर्स्ट ईयर, सेकंड ईयर, एवं उसके बाद फिर M.B.A.फर्स्ट ईयर और सेकंड ईयर पास करके अपने कॉलेज को टाटा बाय-बाय कर लगभग 7 साल कॉलेज में बिताने के बाद जिंदगी की एक नई दौड़ में आगे निकल गया था।
जब बचपन जवानी में तब्दील हों गया
मैं नौकरी की तलाश में दिल्ली शहर में आ गया. दिल्ली शहर में भी मैंने काफी वर्षों तक संघर्ष किया, नौकरी की और तब तक जमाना आ चुका था इंटरनेट का। फेसबुक का , ऑरकुट का और जीमेल का और न जाने कितने ऑनलाइन प्लेटफॉर्म आ चुके थे जिससे कि हम लोग दुनिया से कनेक्टेड रह सके. एक दिन ऐसे ही बैठकर मैं सोचने लगा कि क्यों ना अपने पुराने मित्रों को खोजा जाए तो फेसबुक पर मैंने सबसे पहले उमेश को ढूंढने की कोशिश की।
मैं नौकरी की तलाश में दिल्ली शहर में आ गया. दिल्ली शहर में भी मैंने काफी वर्षों तक संघर्ष किया, नौकरी की और तब तक जमाना आ चुका था इंटरनेट का। फेसबुक का , ऑरकुट का और जीमेल का और न जाने कितने ऑनलाइन प्लेटफॉर्म आ चुके थे जिससे कि हम लोग दुनिया से कनेक्टेड रह सके. एक दिन ऐसे ही बैठकर मैं सोचने लगा कि क्यों ना अपने पुराने मित्रों को खोजा जाए तो फेसबुक पर मैंने सबसे पहले उमेश को ढूंढने की कोशिश की।
और उमेश को सर्च करते समय बहुत सारे उमेश उसमें मुझे दिख गए। अब समझ में नहीं आ रहा था कि इसमें से कौन सा वाला उमेश अपना मित्र है ? क्योंकि हम लोग तो लगभग बचपन में एक दूसरे के साथ छोड़ चुके थे। आप लगा लीजिए की 11वीं कक्षा में बच्चा ज्यादा से ज्यादा 16 या 17 साल का होता है और 16, 17 कि उम्र में बिछड़ने के बाद लगभग हम दोनों तब मिले जब हम 32- 34 साल की उम्र के रहे होंगे। तो लगभग 16- 17 साल बाद ही मैं उसको दोबारा ढूंढने की कोशिश कर रहा था।
उसमें एक लड़का उमेश चंद्र जोशी नाम से मुझे दिख गया लेकिन वह लगभग गंजा सा दिख रहा था। उसके सर पर बाल बहुत कम थे । शक्ल भी मैच नहीं हो पा रही थी जिसको में सोलह-सत्रह साल पहले छोड़ चुका था। समझ में ही नहीं आ रहा था कि यह वही उमेश चंद्र जोशी है या कोई अन्य ? खैर मैंने ज्यादा नहीं सोचा और उसको एक फ्रेंड रिक्वेस्ट भेज दी।
फ्रेंड रिक्वेस्ट भेजने के बाद, कई दिनों तक मुझे उस फ्रेंड रिक्वेस्ट का कोई भी जवाब नहीं मिला यानी कि एक्सेप्ट किया या डिक्लाइन किया, कुछ भी उसका जवाब नहीं मिला तो मैंने सोच लिया कि शायद यह वह उमेश नहीं है जो मैं सोच रहा था. सौभाग्यवश मैंने अपना फेसबुक आईडी पब्लिक किया हुआ था ताकि उसमे मेरा कांटेक्ट नंबर देख कर लोग मुझ से संपर्क कर सकते थे।
एक दिन मुझे एक फोन आया और अंग्रेजी में उधर से आवाज़ आई " Am I Talking to Mr. Laxman Negi? मैंने भी बड़ी सादगी से इंग्लिश में जवाब दिया "Yes, this is Laxman Negi" . May I know who is on the other side? तो वहां से जवाब आया " Can you guess who is on this side? अब देखिए बचपन की दोस्ती थी शक्ल हमारी बदल गई होगी , चेहरे हमारे थोड़ा सा ऊपर नीचे हो गए होंगे ,मोटे हो गए होंगे , पतले हो गए होंगे , लेकिन आवाज??? एक आवाज ऐसी चीज होती है हम इंसानों में, जो कि शायद कभी बदलती नहीं है। हां उसके पिच थोड़ा ऊपर नीचे ,मोटी-पतली जरूर हो जाती है लेकिन जो आवाज के अंदर पहचान कराने वाली खनक होती है ना , किसी की भी वह बदलती नहीं है ।
आवाज़ की खनक हमेशा ज़िंदा रहती है
मैंने उस आवाज को पहचान लिया था और मैंने झट से बोला "अरे तू ! उमेश चंद्र जोशी बोल रहा है ? तो वहां से झट से आवाज आई हा हा हा हा और जोर से बोला अरे यार हाँ मैं उमेश चंद्र जोशी ही हूं। बस फिर क्या था ? दोनों कि आँखों मेंआंसू निकल गए थे और एक दूसरे को छेड़ रहे थे "तू रो क्यों रहा है बे ? और जबाब में बस यही था "कुछ नहीं बे , मैं रो नहीं रहा हूँ , आवाज़ दोनों की भर्रायी हुई थी साफ़ पता चल रहा था कि दोनों बहुत भावुक हो गए थे पर दोस्ती वाली कसर जो थी , रोना नहीं है । दोनों की ख़ुशी का ठिकाना नहीं था हम दोनों बहुत देर तक बातें करते रहे। बचपन की बातों को याद करते रहे। मैंने उससे पूछा तो कहां है भाई ? क्या करता है ? शादी-वादी हो गयी ?
मैंने उस आवाज को पहचान लिया था और मैंने झट से बोला "अरे तू ! उमेश चंद्र जोशी बोल रहा है ? तो वहां से झट से आवाज आई हा हा हा हा और जोर से बोला अरे यार हाँ मैं उमेश चंद्र जोशी ही हूं। बस फिर क्या था ? दोनों कि आँखों मेंआंसू निकल गए थे और एक दूसरे को छेड़ रहे थे "तू रो क्यों रहा है बे ? और जबाब में बस यही था "कुछ नहीं बे , मैं रो नहीं रहा हूँ , आवाज़ दोनों की भर्रायी हुई थी साफ़ पता चल रहा था कि दोनों बहुत भावुक हो गए थे पर दोस्ती वाली कसर जो थी , रोना नहीं है । दोनों की ख़ुशी का ठिकाना नहीं था हम दोनों बहुत देर तक बातें करते रहे। बचपन की बातों को याद करते रहे। मैंने उससे पूछा तो कहां है भाई ? क्या करता है ? शादी-वादी हो गयी ?
शादी तो नहीं हुई मेरी- उमेश बोला। लेकिन मैं अभी यूपी के लखनऊ शहर में टीचिंग की जॉब करता हूं। वेरी गुड। उसने मुझसे पूछा तेरी शादी हो गयी ? मैंने भी कहा हाँ यार मेरी शादी भी हो गई है और मैं दिल्ली में जॉब करता हूं। तो इस तरह से फिर हमारा दोस्ती का सिलसिला चलता रहा। दो , वर्षों पुराने यार फिर से मिल गए और खो गए अपनी पुरानी यादों में , बचपन में और खासकर बचपन की मस्ती में।
एक दिन उसका मुझे फिर काफी दिन बाद मतलब चार-पांच महीने के बाद एक फ़ोन आया कि लक्ष्मण मैं दिल्ली आ रहा हूं और मैं अपने पूरे स्कूल ग्रुप के साथ दिल्ली भ्रमण पर आ रहा हूं। तो क्या हम मिल सकते हैं ? अरे ! मैंने कहा यह तो तूने मेरे मुंह की बात छीन ली भाई। मैं तो सोच ही रहा था कि हम एक दूसरे से मिलें।
मैं बिल्कुल तुझ से मिलने आऊंगा यार। इतने सालों बाद आपस में मिलने का रोमांच कुछ और ही होगा मेरे दोस्त। तू मुझे डेट बता, तू कब आ रहा है ? तो उसने एक डेट मुझे बता दी। मैं अपनी धर्म पत्नी के साथ उस दिन उससे मिलने चला गया। उसने मुझे दिल्ली में एक जगह का नाम बताया , दिल्ली में एक बहुत फेमस जगह है बिरला टेंपल ( बिरला मंदिर) तो मैं वहाँ उससे मिलने पहुँच गया।
जो टाइमिंग उसने बताई मैं उस टाइम पर वहां पहुंच गया. मुझे 1 घंटा इंतजार करना पड़ा क्योंकि उमेश का वह कोई अता-पता नहीं था। एक घंटे बाद देखा तो वहां से एक स्कूल के बच्चों का ग्रुप आ रहा था परन्तु मैं उमेश को फ़ोन कर रहा था लेकिन उसका फोन लग नहीं रहा था शायद कुछ सिग्नल की प्रॉब्लम थी. स्कूल का ग्रुप देख कर मैं समझ तो गया था कि हो न हो इसी ग्रुप को लेकर उमेश आया है। स्कूल के बच्चे किसी धर्मशाला के अंदर जा रहे थे और मैं समझ गया था कि यदि एक बार ग्रुप अंदर चला गया तो फिर मैं उमेश को नहीं मिल पाऊंगा।
अभी मैं कुछ सोच ही रहा था कि ग्रुप में एक टीचर नजर आया मैंने उससे पूछा कि आपके साथ उमेश चंद्र जोशी नाम का कोई टीचर है ?उसने कहा "हाँ है " मैंने पूछा कहाँ है ? तो उसने इशारे से आगे की तरफ जाने को कहा। मैं भागते हुए आगे गया तो देखा कि एक कम हाइट का लड़का जो बच्चों के साथ चले जा रहा है। मैंने उसको पीछे से पीठ पर थपथपाया तो उसने झट से पूछा "यस" ? मैंने पूछा उमेश चंद्र जोशी ? वह बोला- "हां मैं उमेश चंद्र जोशी हूँ" मैंने कहा " अबे मैं "लक्ष्मण सिंह नेगी हूँ यार" ।
जब मिले दोस्त तो सैलाब आ गया
बस मेरा इतना बोलते ही उमेश उछल पड़ा और एकदम से मेरे गले लग पड़ा। अबे यार लक्ष्मण तू ? वो ख़ुशी से चिल्लाया। करीब 16 से 18 साल बाद हम दोनों दोस्त एक दूसरे से मिले तो खुशी का ठिकाना नहीं था। हम दोनों इतने खुश थे जैसे कि कितने साल बाद हमको एक खजाना मिल गया हो जिसके लिए हम बसब्री से प्रतीक्षा कर रहे थे। हम दोनों को मानो दुनिया कि सबसे बड़ी दौलत हाथ लग गयी हो ।
बस मेरा इतना बोलते ही उमेश उछल पड़ा और एकदम से मेरे गले लग पड़ा। अबे यार लक्ष्मण तू ? वो ख़ुशी से चिल्लाया। करीब 16 से 18 साल बाद हम दोनों दोस्त एक दूसरे से मिले तो खुशी का ठिकाना नहीं था। हम दोनों इतने खुश थे जैसे कि कितने साल बाद हमको एक खजाना मिल गया हो जिसके लिए हम बसब्री से प्रतीक्षा कर रहे थे। हम दोनों को मानो दुनिया कि सबसे बड़ी दौलत हाथ लग गयी हो ।
हमारा मन इस दोस्ती को सेलिब्रेट करने को कर रहा था लेकिन उसको सेलिब्रेट नहीं कर पाए क्योंकि टाइम बहुत हो गया तो दुकाने बंद हो चुकी थी। मात्र एक नारियल पानी वाले की दुकान खुली हुई थी तो हमने नारियल पानी को पी करके अपने दोस्तों को सेलिब्रेट किया। सच में क्या ख़ुशी का पल था। दोस्ती वाकई में अनमोल होती है।
फिर मैंने उमेश को अपनी धर्म पत्नी से मिलाया। उमेश यह देख कर खुश था कि मैं अब एक विवाहित पुरुष हो चुका था। उसके बाद आगे कुछ और वर्षों तक हम दोनों दोस्त फ़ोन से संपर्क में रहे। और बाद में उमेश कि शादी के शुभ अवसर पर मैं और मेरी धर्मपत्नी उसके पैतृक गांव (अल्मोड़ा जिला) गए थे।
आज भी मैं और उमेश एक अच्छे मित्रों कि तरह एक दूसरे के संपर्क में हैं। दुर्भाग्य-वस पिछले साल ही उमेश की माता जी का निधन हुआ। सुनकर बहुत दुख हुआ . क्योंकि आंटी को मैंने अपने साथ, अपने सामने देखा है उनके साथ बात किया करता था। कई बार तो आंटी जी ने हम दोनों खाना भी खिलाया था। बहुत बुरा और दुःख हुआ ये जानकर कि अब आंटी जी इस दुनिया में नहीं हैं। खैर दुनिया से तो हर किसी को जाना है ही पर अकस्मात् यह घटना सुनकर गहरा सदमा लगा। आंटी जी जहां भी हों खुश रहें।
तो यह थी एक छोटी सी कहानी, हम दोनों की दोस्ती की जो की बचपन से लेकर अभी तक चल रही है और मैं भगवान से ईश्वर से प्रार्थना करूंगा कि हमारी इस दोस्ती पर किसी की नजर ना लगे और हमारी दोस्ती जीवन पर्यन्त ऐसे ही चले। हम दोनों ने एक दूसरे का बचपन देखा है और ईश्वर से प्रार्थना है कि हम दोनों एक दूसरे का बुढ़ापा भी जरूर देखेंगे। बस डर इस बात का है कि साला दोस्ती को धोखा देकर पहले कौन अलविदा कहेगा ? बस उस दिन को याद करके भावुक हो जाता हूँ क्योंकि अलविदा जो भी कहे, पर दिल बहुत रोयेगा उस दिन।
तो यह कहानी उन लोगों को समर्पित है जो अपनी दोस्ती को सच्ची दोस्ती मानते हैं और आज तक भी अपनी दोस्ती को निभाते चले आ रहे. दोस्तों आपको मेरी यह कहानी कैसी लगी बताइयेगा जरूर
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