चंद वंश का उदय (1550 के आसपास)
कुमाऊँ में चंद वंश की स्थापना 10वीं शताब्दी में हुई थी, लेकिन वास्तविक सत्ता को संगठित रूप देने वाले राजा बालो कल्याण चंद और बाद में उनके उत्तराधिकारी बने। 1563 ई. में चंद वंश की राजधानी चम्पावत से अल्मोड़ा स्थानांतरित की गई।
राजा बालो कल्याण चंद ने अल्मोड़ा को एक संगठित नगर के रूप में बसाया। उन्होंने यहाँ किले, मंदिर और बस्तियाँ बनवाईं। अल्मोड़ा का प्रसिद्ध लक्ष्मीभंडार, काटली बाजार और लाला बाजार इन्हीं दिनों विकसित हुए।
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उनके बाद राजा त्रैलोक्य चंद और उदय चंद ने कुमाऊँ को एक शक्तिशाली राज्य में बदल दिया। चंद वंश के राजाओं ने कुमाऊँ में किलों, मंदिरों और सांस्कृतिक धरोहरों का निर्माण कराया।
कुमाऊँ और गढ़वाल की प्रतिद्वंद्विता
उस समय उत्तराखंड दो बड़े हिस्सों में बंटा था—गढ़वाल और कुमाऊँ। कुमाऊँ पर चंद राजाओं का शासन था, जबकि गढ़वाल पर परमार वंशीय राजा। दोनों राज्यों में सीमाओं और वर्चस्व को लेकर अक्सर संघर्ष होते रहे।
कई बार यह लड़ाइयाँ हिंसक हुईं और दोनों तरफ हजारों लोग मारे गए। लेकिन इन संघर्षों के बीच स्थानीय संस्कृति, मेलों और धार्मिक परंपराओं का विकास भी हुआ।
गोरखाली आक्रमण (1790 के बाद)
18वीं शताब्दी के अंत में नेपाल के गोरखा शासकों ने अपनी शक्ति बढ़ानी शुरू की। उन्होंने पश्चिम की ओर बढ़ते हुए कुमाऊँ और गढ़वाल पर नजर डाली।
1790 में गोरखाओं ने कुमाऊँ पर पहला बड़ा आक्रमण किया। अल्मोड़ा के किले पर कब्जा करने के लिए कई दिनों तक भीषण युद्ध हुआ। उस समय के राजा महेंद्र चंद ने वीरता से लड़ाई लड़ी, लेकिन गोरखाओं की बड़ी सेना और बेहतर संगठन के सामने कुमाऊँ की सेना कमजोर पड़ गई। 1791 में गोरखाओं ने अल्मोड़ा पर अधिकार कर लिया। इस प्रकार कुमाऊँ लगभग 25 वर्षों तक गोरखाओं के अधीन रहा।
गोरखा शासन का दमन
गोरखाओं का शासन स्थानीय जनता के लिए अत्यंत कठोर साबित हुआ। उन्होंने भारी कर लगाए, किसानों से जबरन उपज वसूली, और किसी भी प्रकार के विद्रोह को निर्दयता से दबा दिया।
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स्थानीय लोगों की भूमि छीन ली गई और असहमति जताने वालों को कठोर दंड दिया गया। अल्मोड़ा, रानीखेत और आसपास के क्षेत्रों में लोगों का जीवन कठिन हो गया।
गोरखा शासन की क्रूरता के कारण आम जनता में असंतोष फैलने लगा। लोग अवसर की तलाश में थे कि कब कोई बाहरी शक्ति आकर उन्हें इस दमन से मुक्त कराए।
अंग्रेजों का आगमन और संघर्ष
इसी बीच, 1814 में अंग्रेजों और गोरखाओं के बीच एंग्लो-नेपाल युद्ध छिड़ गया। अंग्रेज ईस्ट इंडिया कंपनी का साम्राज्य उस समय पूरे उत्तर भारत में फैल चुका था। वे नेपाल की बढ़ती शक्ति को अपने लिए खतरा मानते थे।
1815 में अंग्रेज जनरल गॉर्डन और कर्नल निकोलस की सेना ने कुमाऊँ की ओर कूच किया। उन्होंने पहले गढ़वाल में गोरखाओं को हराया और फिर अल्मोड़ा की ओर बढ़े।
अल्मोड़ा का युद्ध (1815)
अप्रैल 1815 में अंग्रेज सेना अल्मोड़ा पहुंची। गोरखाओं ने अल्मोड़ा किले (ललमंडी किला) में मोर्चा संभाल लिया।
कई दिनों तक युद्ध चला। अंग्रेज तोपों ने अल्मोड़ा किले पर गोलाबारी की। गोरखा सैनिकों ने वीरता से मोर्चा लिया, लेकिन वे अंग्रेजों की आधुनिक तोपों और हथियारों के सामने ज्यादा देर टिक नहीं पाए।
25 अप्रैल 1815 को गोरखाओं ने आत्मसमर्पण कर दिया और अंग्रेजों ने अल्मोड़ा पर अधिकार कर लिया। इस तरह कुमाऊँ अंग्रेजी हुकूमत के अधीन आ गया।
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गोरखा शासन की समाप्ति और अंग्रेजी राज
अल्मोड़ा की लड़ाई ने न सिर्फ कुमाऊँ बल्कि पूरे उत्तराखंड का भविष्य बदल दिया।
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गढ़वाल के राजा सुदर्शन शाह को गढ़वाल का कुछ हिस्सा वापस मिला, लेकिन उन्होंने राजधानी श्रीनगर से हटाकर टिहरी में बसाई।
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कुमाऊँ को सीधे अंग्रेजों के अधीन कर दिया गया और एक अलग प्रशासनिक इकाई "कुमाऊँ कमिश्नरी" बनाई गई, जिसका मुख्यालय अल्मोड़ा रहा।
अल्मोड़ा उस समय शिक्षा और प्रशासन का केंद्र बना। बाद में यह क्षेत्र स्वतंत्रता संग्राम का भी गवाह बना।
स्वतंत्रता आंदोलन में अल्मोड़ा की भूमिका
अल्मोड़ा सिर्फ चंद वंश और गोरखा युद्धों तक सीमित नहीं रहा। अंग्रेजी राज के दौरान यहाँ से कई स्वतंत्रता सेनानी भी निकले।
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पंडित बद्री दत्त पाण्डे (कुमाऊँ केसरी): उन्होंने कुली-बेगार प्रथा के खिलाफ आंदोलन चलाया।
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गोविंद बल्लभ पंत: बाद में वे भारत के पहले गृहमंत्री बने।
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श्यामलाल शाह, हरगोविंद पंत और अन्य कई क्रांतिकारी यहीं से जुड़े रहे।
इस प्रकार अल्मोड़ा ने इतिहास के हर दौर में अपनी वीरता और संघर्ष का परिचय दिया।
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निष्कर्ष
यह कहानी हमें बताती है कि कैसे कुमाऊँ और विशेष रूप से अल्मोड़ा ने अलग-अलग कालखंडों में विदेशी आक्रांताओं और अन्याय के खिलाफ संघर्ष किया।
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पहले चंद राजाओं ने इस भूमि को समृद्ध और संगठित किया।
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फिर गोरखाओं के दमनकारी शासन ने यहाँ के लोगों को कठिन समय दिया।
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और अंततः अंग्रेजों ने गोरखाओं को हराकर यहाँ शासन किया।
अल्मोड़ा की धरती ने हमेशा संघर्ष किया और अपनी पहचान बनाए रखी। यही कारण है कि इसे उत्तराखंड का ऐतिहासिक और सांस्कृतिक हृदय कहा जाता है।